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Vyatha Katha   

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Author JawaharLal Kaul
Features
  • ISBN : 9789386001849
  • Language : Hindi
  • Publisher : Prabhat Prakashan
  • Edition : Ist
  • ...more

More Information

  • JawaharLal Kaul
  • 9789386001849
  • Hindi
  • Prabhat Prakashan
  • Ist
  • 2018
  • 216
  • Hard Cover

Description

लोग कहते हैं कि कल्पना का कोई विवेक नहीं होता, वह विवेक के सहारे नहीं चलती है। मन और मस्तिष्क अकसर अलग-अलग दिशाओं में चलते दिखाई देते हैं, कम-से-कम माना तो यही जाता है। लेकिन मुझे तो ऐसा लगा कि जब भी मस्तिष्क ने कल्पना को रोका-टोका तो उसे सही दिशा में मोड़ने के लिए ही, वह ऐसा न करता तो शायद मन कहीं ऐसी गलियों में भी फँस सकता था, जो थोड़ी ही दूर जाकर बंद हो जाती हों। ऐसी ही किसी अंधी गली में कल्पना भी दम तोड़ती। इसीलिए बार-बार जीवन की कठोर वास्तविकताएँ इस प्रेम-कहानी में अपना योगदान करने टपक ही पड़ती थीं। जो प्रेम-प्रसंग एक भौतिक सचाई से आरंभ हुआ हो, वह अपनी यात्रा में न तो प्रत्यक्ष से दूर रह सकता था, न इतिहास को नजरअंदाज कर सकता था। ऌफ्लीटफुट की प्रेमकथा भी सच है, आदिवसियों की पीड़ा भी सच है, भारतवंशियों की उलझनें और विसंगतियाँ भी सच ही हैं और उन यूरोपीय बाल गुलामों की त्रासदी भी सच ही है। ये और कई सच एक माला में पिरोना संभव नहीं था, अगर एथीना न होती और उसे एक अंगद नहीं मिलता। सब घटनाएँ, सारे तथ्य इन्हीं दो काल्पनिक पात्रों के चारों ओर घूमते रहे, उसी तरह बँधे हुए, जैसे सूर्य के साथ उसके ग्रह। वैसे भी कोई सच एकदम कल्पना से रहित होकर हम तक कहाँ पहुँच पाता है?

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अनुक्रम

भूमिका : ऐसे हुआ उपन्यास का जन्म—5

1. कालरात्रि में श्वेत प्रेत—11

2. किस्सा फ्लीट फुट का—46

3. अंधों का प्यार—72

4. लौट आई एथीना—88

5. क्रेडिट नदी की पगडंडी—104

6. एडम क्राइस्ट—112

7. मल्लिका मीर—123

8. चाची—131

9. त्रिशंकु—138

10. राष्ट्रवाद की प्रसव पीड़ा—148

11. विलायत से आए नन्हे-मुन्ने गुलाम—175

The Author

JawaharLal Kaul

26 अगस्त, 1937 को जम्मू-कश्मीर के एक सुदूर क्षेत्र में जन्म। श्रीनगर में एम.ए. तक की शिक्षा प्राप्त की। 
श्रीनगर के ही एक स्कूल में अध्यापक हो गए। तभी हिंदुस्थान समाचार के श्री बालेश्वर अग्रवाल ने अपनी समाचार समिति में उन्हें एक प्रशिक्षु पत्रकार रख लिया। अगले वर्ष अज्ञेयजी ने अपने नए प्रयोग ‘दिनमान’ के लिए उन्हें चुना। दो दशक तक ‘दिनमान’ के साथ काम करने के पश्चात्  ‘जनसत्ता’ दैनिक में श्री प्रभाष जोशी के सहयोगी बने। 
80 वर्ष की उम्र में भी उनका लिखना जारी है। उनका मानना है कि जब तक व्यक्ति जीवित है, उसके सोचने पर पूर्ण विराम तो नहीं लगता। सोचने पर नहीं लगता तो कहने-लिखने पर क्यों लगेगा? लिखना जीवन का लक्षण है, उसकी प्रासंगिकता है। अपनी पुस्तक ‘हिंदी पत्रकारिता का बाजार भाव’ में वे लिखते हैं कि पत्रकारिता अब एक ऐसा उद्योग हो गया है, जहाँ प्रमुख संचालक विज्ञापनदाता हो गया है, जो न तो पाठक है, न संपादक और न ही संस्थापक। 
उन्हें वर्ष 2016 में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया।

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