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Sita Puni Boli   

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Author Mridula Sinha
Features
  • ISBN : 9789382898986
  • Language : Hindi
  • Publisher : Prabhat Prakashan
  • Edition : 1st
  • ...more

More Information

  • Mridula Sinha
  • 9789382898986
  • Hindi
  • Prabhat Prakashan
  • 1st
  • 2016
  • 296
  • Hard Cover

Description

मैंने घोषणा की, “मैं पृथ्वी-पुत्री सीता इन दोनों पुत्रों की जननी हूँ। इक्ष्वाकु वंश की ये दोनों संतानें उनके प्रतापी वंश को अर्पित कर मैंने अपना दायित्व पूर्ण किया। असंख्य संतानों की माँ, धरती की अंश अब मैं अपनी माँ के सान्निध्य में जाना चाहती हूँ। चलते-चलते बहुत थक चुकी हूँ, मानो शक्‍ति क्षीण हो गई है। पुन: शक्‍ति-प्राप्‍ति के लिए धरती ही उपयुक्‍त स्रोत है। मैं कुश एवं लव की जननी अपनी जननी का आलिंगन करना चाहती हूँ, उसके सत में विलीन हो जाना चाहती हूँ।”
श्रीराम अति विनीत स्वर में बोले, “नहीं सीते! आप मुझे इतना बड़ा दंड नहीं दे सकतीं। आपको मैंने निर्वासन का दंड दिया, किंतु आप निरपराध थीं। आपके निर्वासित होने पर यह राजभवन मेरे लिए वन के समान ही था। मैं आपकी सौगंध खाकर कहता हूँ—आपके निर्वासन के उपरांत मेरे राज्य में एक भी नारी अपने दु:ख से दु:खी नहीं हुई; पर अयोध्या और मिथिला की प्रजा आपके लिए ही बिसूरती रही। सीते...सीते...”
मेरे अंतर्धान होने के क्रम में मुझे किसी ने देखा नहीं। पर मैं सब देखती-सुनती रही। चहुँओर अपने ही नाम का जयघोष! दोनों पुत्रों का विलाप, राम का वियोग, दो कुमारों को पाकर अयोध्या का हुलास, जन-सामान्य में राम के लिए सहानुभूति। फिर भावों का इंद्रधनुष बना था, जिन्हें आत्मसात् करने का मेरे पास समय नहीं था, न आवश्यकता थी। मेरा जीवनोद्देश्य ही पूरा हो गया था।
—इसी उपन्यास से
जनकपुर के विदेह राजा जनक की दुलारी, राम की सहधर्मिणी, दशरथ और कौशल्या की अत्यंत प्रिय पुत्रवधू, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न की माँ सदृश भाभी, राजमहल से लेकर वन और आश्रम जीवन में अनेक सामाजिक संबंधों में बँधी सीता की स्मृति त्रेतायुग से प्रवाहित होती हुई आज भी जन-जन के हृदय और भारतीय मानस में रची-बसी है। आत्मकथ्य शैली में लिखा सीताजी के तेजस्वी और शौर्यपूर्ण जीवन पर आधारित एक अत्यंत मार्मिक, कारुणिक एवं हृदयस्पर्शी उपन्यास।

The Author

Mridula Sinha

मृदुला सिन्हा 
27 नवंबर, 1942 (विवाह पंचमी), छपरा गाँव (बिहार) के एक मध्यम परिवार में जन्म। गाँव के प्रथम शिक्षित पिता की अंतिम संतान। बड़ों की गोद और कंधों से उतरकर पिताजी के टमटम, रिक्शा पर सवारी, आठ वर्ष की उम्र में छात्रावासीय विद्यालय में प्रवेश। 16 वर्ष की आयु में ससुराल पहुँचकर बैलगाड़ी से यात्रा, पति के मंत्री बनने पर 1971 में पहली बार हवाई जहाज की सवारी। 1964 से लेखन प्रारंभ। 1956-57 से प्रारंभ हुई लेखनी की यात्रा कभी रुकती, कभी थमती रही। 1977 में पहली कहानी कादंबिनी' पत्रिका में छपी। तब से लेखनी भी सक्रिय हो गई। विभिन्न विधाओं में लिखती रहीं। गाँव-गरीब की कहानियाँ हैं तो राजघरानों की भी। रधिया की कहानी है तो रजिया और मैरी की भी। लेखनी ने सीता, सावित्री, मंदोदरी के जीवन को खंगाला है, उनमें से आधुनिक बेटियों के लिए जीवन-संबल हूँढ़ा है तो जल, थल और नभ पर पाँव रख रही आज की ओजस्विनियों की गाथाएँ भी हैं।
लोकसंस्कारों और लोकसाहित्य में स्त्री की शक्ति-सामर्थ्य ढूँढ़ती लेखनी उनमें भारतीय संस्कृति के अथाह सूत्र पाकर धन्य-धन्य हुई है। लेखिका अपनी जीवन-यात्रा पगडंडी से प्रारंभ करके आज गोवा के राजभवन में पहुँची हैं।

 

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